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गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

कविता-१२८ : "अफसाना जिंदगी का...."


कागज को उठाया ही था

कलम भी पास थी
और दवात भी ..

तुम आ गये तभी...
मुस्कराये..
कसमे खाई..
हाँथ थामा..
रूठे..
टूटे..
वादे तोड़े...
और छोड़ दिया तन्हा..


फिर क्या ??
देखा कागज पर
लिखा था...
अफसाना जिन्दगी का...
सच !!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

कविता-१२७ : "सांझ क्यों हो गई ?"



अरुणोदय हुआ.....

रागिनी रौशनी छा गई
पर !
अचानक
तुम रूठ गये...
सपने टूट गये..


ख्वाहिशे बिखर गई..
बिछड़ ही गये आखिर...

ओह !
सांझ क्यों हो गई ?
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

कविता-१२६ : "नाजुक सी हथेलियों ने..."


उस रात मेरी सुर्ख लाल आँखों से

गिरते हुए अश्रुओ को

थामा था जिन नाजुक सी हथेलियों ने

वो तुम ही थे....

मेरी गूंगे मौन के दिये थे जब
साहस के स्वर
वो भी तुम ही थे...

मेरी अधखुली आँखों में पल रहे
सपनो को
हकीकत में बदलने वाले
सिर्फ तुम्ही थे...

मेरी उदगारो की नीले स्याह को
कागज पर सवारने वाले
तुम ही थे...

मेरे हर कठिन मोड़ पर
संघर्षो के उफ्नाव पर 
सहारा देने तुम हां
सिर्फ तुम ही थे...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

सोमवार, 27 अप्रैल 2015

कविता-१२५ : "नर और नारी..."


नदी थी तुम...

मै पहाड़ सा...

कल्लोल करके बहती तुम

मै ढीठ अडिग खड़ा-खड़ा...

तुम कोमल फूल सी

मै शूल सा...

तुम मोम सी
मै इस्पात सा..

तुम हो तुम सी
मै हूँ मै सा...

तुमने दिया बहुत कुछ

मैंने लिया बहुत कुछ...

क्योकि...
तुम नारी हो 
और मै नर...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________



रविवार, 26 अप्रैल 2015

कविता-१२४ : "हे औरत..."


बिटिया...

तुम लड़की बन गई
लड़की तुम...

युवती बन गई...

युवती तुम महिला...
महिला तुम वृद्धा बन गई
पर हे औरत...

तू क्यों बनी रही अबला ही
जिन्दगी भर...

क्यों न पा सकी अधिकार 
पुरषो के जैसे
कभी...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

कविता - १२३ : 'फरेब...'

चारो और फरेब है धरती पर
इसलिए
ये प्रकृति का तांडव भी
धरती पर...

काँप गई ये धरती आज
दिए कुछ झटके से
चेतावनी ही शायद
फरेब के ठेकेदारो को

धरती पुत्र किसान
जब लटकेंगे पेड़ो पर
तो ये धरती कांपेगी रोयेगी
और हद के बढ़ने पर

मिला लेगी सृष्टि को
अपनी ही देह में
एक दिन...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

कविता-१२२ : "उन खुबसूरत पलों में...."


उन खूबसूरत पलो में...

कितनी शर्माई थी तुम...
तुम्हारे रोम रोम में लज्जा भरी थी...
झुकी पलकों से तुम्हारे मौन ने
जो कहा था मुझसे...
वो आज भी याद है...

तुम्हारा पहला स्पर्श / छुअन
और गुदगुदी रेशमी बालो की..
भूल सकता हूँ कैसे भला ??

फिर नयी रेशमी चादर पर
सिलवटो के निशान..
कितनी तेजी से जकड़ा था
अपनी मुट्ठी से तुमने...

और फिर मेरी पीठ पर
तुम्हारे नाखून के निशान से
रिसता है प्रणय आज भी
जो नहीं देता भूलने

भूलकर भी तुम्हे...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

कविता-१२१ : "नटिनी..."




नटिनी तू चलती रही रस्सी पर

दबे पाँव बिना कोई आवाज के

ऊपर आकाश और जमीन के बीच
क्या नहीं दिखा होगा तुम्हे...

डर भय पीड़ा या मौत
पर ये सब दब गया होगा न
उस पापी छह इंच के पेट के नीचे
और तुम्हारे उन भूखे बच्चो की खातिर..

नीचे बिछी होगी एक फटी सी चादर
बज रहा होगा डमरू
भीड़ डाल रही होगी सिक्के उछलकर..
कुछ ने तुम्हारी फटी चोली पर
फब्दियाँ भी जड़ दी होंगी...

आदत जो हो गई तुम्हे इन सब की
उतर भी गई होगी सुरक्षित
उठा कर पैसे , चली गई होगी कही और
किसी और चौराहे पर...

जीने की एक और सुबह ढूँढने
जहाँ फिर वही भय वही डर
वही रस्सी....

और वही छह इंच का पेट
जो तुझे नहीं जीने देता
जीकर भी...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

कविता-१२० : "मेरे अंदर का बच्चा..."


लाल नीले पीले गुलाबी 
गुब्बारों को देख कर

चूमने लगता है नीला आसमान..


लम्बी सी पूंछ की बड़ी सी पतंग
को देखकर उड़ते हुए
मन में हिलोर उठती है आज भी..

सावन में झूले, चकरी और लट्टू
चाभी वाली रेल गाड़ी भी
अहा ! 
आज भी मन जुदा है इनसे..

किसी ठेले पर बर्फ का गोला
और बुढ़िया के बाल..
कुल्फी के गाड़ी की टन टन टन
हम जैसे बड़े ही नहीं हुए...

पहली बारिश में मिटटी की
सोंधी सोंधी सी खुशबू
वो कच्ची डगर , नहर...
और पेड़ पर रस्सी का झूले...
कैसे हम भूले...

इन सबको याद कर आज भी
लगता है हंसने. कूदने
और मुस्कराने...
मेरे अन्दर का बच्चा...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

कविता-११९ : "तुम मै और मन..."



तुम मै और मन...


तुम तुम हो...


मै मै हूँ...


और... 
मन... 'मन' है 

पर,

 तुममे मै
मुझमे तुम
और मन में हम...

लो बन गई...
जिन्दगी...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________


सोमवार, 20 अप्रैल 2015

कविता-११८ : "एक ही मन..."

'गमन' और 'आगमन' 
दोनों शब्दों में अंत में 'मन' है
और ये मन ही है...

जो शायद !

गमन में पीड़ा
और आगमन में
देता है ख़ुशी...!!!



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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________


रविवार, 19 अप्रैल 2015

कविता - ११७ : "क्या हैं सत्य ???"


सत्य को सत्य लिखा 
तो कुछ न मिला...

झूठ को सत्य लिखा
तो कुछ मिला...

फिर लिखा सत्य भी झूठ भी
जहाँ जैसा ठीक लगे...

तब से आराम से जी रहा हूँ
आप के बीच ही...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________




शनिवार, 18 अप्रैल 2015

कविता-११६ : "मेरे तुम्हारे बीच में..."


मेरे तुम्हारे बीच

आज भी शेष है बहुत कुछ
तुम जरा बढ़ो तो सही...


अपनी आँखों के घेरे में
उभार लो तस्वीर मेरी
और महसूस करो अपनी
साँसों के ही संग...

मधुर यादो को कर दो जीवित
फिर से 
खोल दो स्मृतियों के पट सारे...

आओ संग साथ मेरे
खेले फिर से वो लुका छिपी 
गिल्ली डंडा, लंगड़ी दौड़
और रचाये शादी गुडियो की
देखना फिर...

पुरानी यादे फिर से चहचहा
उठेंगी कोयल की तरह
और प्यार की बारिश से 
भीग जायेगे फिर हम और तुम
फिर दूरियां कहाँ बचेगी
शेष...

मेरे तुम्हारे बीच
सच में...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

कविता-११५ : "वो कौन हैं ???"

तीन आदमी थे...

एक हिन्दू, जो मस्जिद नहीं जाता
दूसरा मुस्लिम , जो मंदिर नहीं जाता

और तीसरा वह जो...

मना करता है हिन्दू को मस्जिद
और मुस्लिम को मंदिर जाने से...!!!

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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

कविता-११४ : "छुवन..."


तुम्हारी एक बार की छूअन
मेरे ख्वाहिशो की मिटटी को
हकीकत के पाषण में तब्दील कर देती है...

अंततः!

मेरा निरर्थक मन
सार्थक हो चलता है....

जिन्दगी के गीतों में...!!!

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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

बुधवार, 15 अप्रैल 2015

कविता-११३ : "औरत की कहानी..."

सोचा...

लिखूं औरत के
दर्द की कहानी...

पर !

औरत के दर्द नें
ही तो लिखी
कहानी
जिंदगी की...!!!

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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________