मंगलवार, 1 सितंबर 2015
शनिवार, 29 अगस्त 2015
कविता-२४७ : "राखी का बंधन..."
मेरी देह से जुडे
सीधे
हांथ की कलाई में
आज के दिन बंधता था
एक
पीला धागा
जो खुलता न था तीन
मजबूत
गांठो से....
बन जाता था एक निशान
वहां
समय बढ़ गया
फिर ये दिवस आया
हाँथ भी है
वो निशान वाली जगह
भी है
पर राखी नहीं...!!!
--------------------------------------------------------------
--------------------------------------------------------------
_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
गुरुवार, 27 अगस्त 2015
कविता-२४५ : "अनमोल रिश्ता..."
कूड़े घर में आई एक आवाज
कोई दरिंदा फेंक
गया अपनी ही संतान
सिर्फ इसलिए उस नवजात
की नन्ही देह में
वो अंग नहीं था, जिस पर घमंड
करता है पुरुष...
कुछ तो जन्म पूर्व ही उनके
आँखों के नजारा छीन लेते
है
कोख में ही हत्या
उफ्फ्फ.... बेहद अमानवीय
साँसों का उन साँसों से
अनमोल रिश्ता था
पर....
बे मोल कर दिया
किसलिए आखिर...???
-----------------------------------------------------------------
-----------------------------------------------------------------
_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
बुधवार, 26 अगस्त 2015
कविता-२४४ : "श्रींगार..."
सुन्दरी___
तेरे चेहरे पर लिपे पाउडर
क्रीम और लिपस्टिक
और नाखुनो में रंग बिरंगी
उभरे
चित्रो ___
ब्यूटी पार्लर की तमाम
क्रियाओ / अर्ध देह को
दिखाते
बदन को खींचते कपडे
से भी तू___
श्रृंगार से कोसो दूर थी__
वही देखी गाँव की
पगडण्डी में एक अध् बूढी
औरत
जिसके हाँथ में
कांच की दर्जनों चुडिया
माथे के बीच मोटी सी
सिंदूर रेखा
बड़ी सी गोल सुर्ख़ लाल
बिंदी
पाँव में भारी तोड़ल / पायल
और सीने से चिपकाए
एक पसीने में भीगा आँचल__
सच__
श्रृंगार में चकमा चूर थी…!!!
-----------------------------------------------------------------
-----------------------------------------------------------------
_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
मंगलवार, 25 अगस्त 2015
कविता-२४३ : "सब बेच आये हैं...!!"
सदियो से ही चलती आ रही
बेचने की परम्परा___
महाभारत में बेचीं गई लाज
रामायण में मान
कुछ देश के नरेशों ने अपने
उसूलो / राज पाट को
ही बेच डाला___
इस मिट्टी में नारी बिकी
नारी के देह बिकी
स्वाभिमान / विवेक बिका
देवी सी पूज्य कन्या
तो हर कहीं बिक रही बाज़ारो
में
हिंदुस्तान की मिटटी में
रहने वालो ने
हिन्दुस्तान को ही बेच
डाला__
शेष बचे थे___
कुछ नैतिक संस्कार
कलम / कागज / अहसास
बिक चुके वो भी अब
पर सोचता हूँ
कि____
इनका खरीददार कौन है
कहीं हम ही तो नहीं ____???
-----------------------------------------------------------------
-----------------------------------------------------------------
_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
सोमवार, 24 अगस्त 2015
रविवार, 23 अगस्त 2015
कविता-२४१ : "यूँ बरसते रहो..."
बरसना ___तृप्ति भी देता है
और , पीड़ा भी
निर्भर है , स्तिथि / परिस्तिथि
के ऊपर __
सूखी तपिस से भरी धरा को
पावस की प्रथम बरसात
कहते लोग , यूँ बरसते रहो__
सीमा पर दी देशो में
घमासान
आग उगलते गोले
शहर में घुसे आतंकी__
बरसती दना दन गोलियाँ__
तब कहते है लोग
यूँ न बरसो अब , थम जाओ
प्रकृति नियति और नियम
सजाती है सदा
यदाकदा___
क्रिया ( बरसात ) क्रमशः__
मापदंडो / आवश्यकताओं
और कुछ व्यवस्थाओ
में रचती कविता जो
कहती है__
यूँ बरसते रहो
या न बरसो बिलकुल भी
सच…!!!
-----------------------------------------------------------------
-----------------------------------------------------------------
_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
सदस्यता लें
संदेश (Atom)