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रविवार, 4 जनवरी 2015

कविता-०४ : 'वेश्या हूँ मैं'

हां ....मै वेश्या हूँ मै
वेश्या ....

नुचवाती हूँ देह अपनी
उतरती हूँ कपडे
होती हूँ नग्न, कई पुरुष के सामने
वासना से भरे पुरुष
टूट जाते हैं मेरी देह पर ऐसे
जैसे !
भूखा सिंह टूटता हो किसी
हिरण को देखकर....

चंद कागज के टुकडो की खातिर
देह बेंचती हूँ देह
जिसे तुम जोड़ते हो नारी के
चरित्र से...

मै वेश्या चरित्रहीन
समाज की भर्तसना  / और बुराई अनेक
प्राप्त नारी...
तुम पुरषो की भूख को
तृप्त करती हूँ
तुम, संग बिस्तर पर झलकाते हो
प्यार...  कामुकता से भरे
अनगिनत चुम्बन
मेरे अंग अंग पर...
और देह से देह टिकाकर
जताते हो प्रेम की परकाष्ठा...
पाने क्षणिक सुख...

उपरांत सुख के लेते ही
देते हो गाली / रंडी/ छिनार और
भी क्या क्या ....

कहते हो शर्म नहीं आती इसे
महिला होकर ..

सच !
शर्म आई थी मुझे उस दिन बहुत
जब स्कूल के शिक्षक ने
कक्षा में खिलवाड़ की थी
मेरे अंगो से...

शर्म आई थो उस दिन जब
पड़ोस के चाचा ने 
जो मुझे बिटिया कहते थे
नशे में जकड़ा था मुझे..

शर्म तो उस दिन भी बहुत आई थी
जब कुछ लडको ने मेरी इज्जत को
तार तार किया था
और न्याय के लिए गई थी थाने
में रिपोर्ट लिखाने पर
लिखा लाई थी कुछ और ही
अपने बदन पर
थानेदार के हांथो....

फिर मेरी शर्म भय में बदल गई
जब पिताजी ने बेंच डाला जब
एक शौकीन शराबी को..

अब शर्म दिलेरी में बदल गई
और उसी दिलेरी से कहती हूँ
मै अपने भूखे बच्चो का पेट
भरती हूँ
वेश्या बनकर
हां वेश्या हूँ मै....
पर तुम कौन हो ??
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.......आपका अपना..... 'अखिल जैन' 

1 टिप्पणी:

  1. समाज के एक वीभत्स पक्ष को उजागर करती हुई आपकी रचना.. वास्तव मे रचना ही नही अपितु उन तमाम स्त्रियों की आवाज है जो इस स्वार्थी निर्लज्ज समाज के उस दल दल में फसीं है.. सचमुच सोचनीय ...

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