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सोमवार, 12 जनवरी 2015

कविता-१२ : 'निःस्वार्थ ममता'

घर से दूसरे शहर जाते वक्त..
माँ लगाती है बेग,
आवश्यकता से एक जोड़ी ज्यादा कपडे,
चादर, दरी...

और खाने की तमाम सामग्री वो भी इतनी कि,
खत्म न हो बापिस आने तक....

दरवाजे से निकलते और
आँखों से ओझल होने तक भी पूछती रहती है...

बेटा ..रूमाल रख लिया
बेटा चार्जर रख लिया...
बेटा बेटा फोन करते रहना..
बेटा एक और पानी की बोतल रख लो.....
बाहर का पानी कहीं तुम्हे बीमार ना कर दे ,
और कहीं बीच रास्ते ट्रैन बिगड़ गयी तो
पानी नहीं मिलेगा ,

तब हलके से चिल्लाते हुए अरे यार माँ...
बच्चा नहीं हूँ,
सब है...
फ़िर माँ.. बेटा पैसे है न पूरे जेब में

माँ..
चार चार ए टी एम् कार्ड है
क्यों इतना फ़िक्र करती हो ..
सिर्फ चार दिन के लिये ही तो जा रहा हूँ ..

माँ खोलती है साड़ी के पल्लू की गठान
और देती है एक बीस रूपए का नोट
गुडी लगा हुआ..

रख लो चाय पान के लिए..
सच !
कितने बड़े हो गये हम बच्चे ,
पर माँ के लिए ..
छोटे उतने ही..

और माँ शब्द बोलने में जितना छोटा ,
उसके होने के मायने उस से कहीं ज्यादा बड़े,
उसकी निस्वार्थ ममता के जैसे!!!!
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............. आपका अपना... ‘अखिल जैन’

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