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शनिवार, 3 जनवरी 2015

कविता-०३ : 'नदी बनाम स्त्री'


मै नदी हूँ.......

बहना ही मेरा स्वभाव
सदियों से निभाती आ रही हूँ
यही स्वभाव मै...
सूखे कंठ से ..

खेत खलिहानों की सुर्ख मिट्टी तक
समेटे हूँ खुद में अस्तित्व कई
मेरे अभाव में
उत्पादन / सृजन और निर्माण
शिथिल सब ही...

मेरे बहाव में कई पड़ाव जिन्दगी के
मै नदी ( स्त्रीलिंग )
बह रही सदियों से....

निभाते निभाते धर्म अपना..
पर !
मेरे बहाव में अडाव कुछ
रोड़े / पत्थर
ये सभी ( पुल्लिंग )

इनको चीरकर खुद बनाती रास्ता
आखिर....

पर ..
समाज की कडवी सच्चाई अनुसार
समां जाती फिर
अंततः एक पुरुष ( महासागर )
में ही..

और खत्म हो जाता मेरा
नदी का
स्त्री का अस्तित्व... !!!
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................. आपका अपना.... 'अखिल जैन'







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