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सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

कविता-४५ : "होगा सवेरा... एक दिन..."

पक्षी... उड़ते हैं...
थकते हैं, बैठते है डाल पर...
फिर से उड़ जाते हैं...
पाने मंजिल....सोचकर
हो जायेगा कहीं बसेरा एक दिन...

अंधियारी रात आती है
रवि को डुबाकर..
पर...
कहाँ टिक पाती ज्यादा देर
होने तक भोर, सोचती है
हो जायेगा सवेरा एक दिन...

पथझड़ आता है......
गुलशन मुरझा जाता है
पर...
खिलते है प्रसून बगिया में फिर
और
फूलो की महक..
उठती तो जरुर है...
सोचता है पतझड़ ..
आएगा बसंत बहार एक दिन..

इन्सान तन्हा है...
मै भी / शायद तुम भी..
पर कब तक ??
आएगी ख़ुशी...
मुस्करायेंगे हम...
आखिर...
ये वक्त भी कट जायेगा एक दिन...!!!
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______ आपका अपना : 'अखिल जैन' ______

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