भोर की पहली
किरण में जाती हो तुम
रात के अँधेरे
में आती हो तुम
पूरी दोपहर !
यादें ही रह्ती
है बस तुम्हारी...
अब मिलन के गीत
लिखूँ
तो लिखूँ कैसे ?
शव्द तो साथ ले
जाती हो तुम
सिर्फ कलम ही
दे जाती हो तुम
में और कलम
अधूरे रहते है तुम बिन
अब प्रणय के
वंद कहूँ ..
तो कहूँ कैसे ?
मुझे अकेला छोड़
के जाती हो तुम
ह्रदय से, एक पल दूर न
जाती हो तुम
तुम बिन द्वंद
ही होता है नेह से
अब स्नेह के
छंद लिखूँ ...
तो लिखूँ कैसे ?
ना जाओ, तन्हा छोड़कर
तुम
विरह की चादर
ओढ़कर तुम
रहो सदा, संग साथ मेरे
गीत लिखूँ सदा...
तेरे
मेरे....!!
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_________आपका अपना ‘अखिल
जैन’_________
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