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शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

कविता-५० : "अंतहीन सफर"

कहाँ जायेगी ये डगर...
गर पता होता
तो चला न जाता...

पर रुकने से भी फायदा
क्या ?

चलते चलते..और फिसलते
संभलते...फिर और चलते
बढ़ता जाऊंगा

देखकर सूरज , पाने उसे
फिर शायद
गिरूंगा जमी पर और
हो जाऊंगा खत्म

पर...  
डगर तो डगर है
कहाँ होगी खत्म
नहीं पता...

जायेगी कहाँ ??
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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