कहाँ जायेगी ये डगर...
गर पता होता
तो चला न जाता...
पर रुकने से भी फायदा
क्या ?
चलते चलते..और फिसलते
संभलते...फिर और चलते
बढ़ता जाऊंगा
देखकर सूरज , पाने उसे
फिर शायद
गिरूंगा जमी पर और
हो जाऊंगा खत्म
पर...
डगर तो डगर है
कहाँ होगी खत्म
नहीं पता...
जायेगी कहाँ ??
-------------------------------------------------------------
_________आपका अपना ‘अखिल
जैन’_________
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें