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बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

कविता-४० : "हद से बेहद..."


वो जब हद से गुजर जाते हैं
तब हद में कहाँ होते वो ?

और उनकी यही बेहदी
उन्हें दूर करती है मुझसे
और खुद से भी शायद....

फिर हमारी हद भी तो हद है
जवाब दे जाती है एक दिन
और !
शुरू हो जाती है हदों की
टकराहट.....

धरे के धरे रह जाती है
नैतिकता और नाम मात्र की
इंसानियत.....

शेष जो बचता है लगभग
शून्य या शून्य जैसा ही
कुछ....

आखिर !

हदे जो पार हो गई...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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