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शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

कविता-२१९ : "गुरु की महिमा..."

दिवस_____
जिसमे किया जाता बखान
गुरुओ का
गुरुओ की महिमा का
आचार्य द्रोण जैसे कई गुरुओ
की उपमाओं के साथ
शालाओ महा विद्ध्यालयो और
भी कई शिक्षण संस्थाओ में
सम्मान पुरस्कार
और भी कई कार्यक्रम
सिर्फ आज के ही दिन
गुरुओ की चरण वंदना और
गुरु महिमा  के साथ
बढ़ती हुई परंपरा
पर समय के बढ़ते हुए क्रम में
खोते आदर्श
संस्कार
गुरु का पद और गुरु धर्म
शायद_____
आधुनिक समाज में अंधी हो
चुकी संस्कृति ही
इतिहास के स्वर्णिम पन्नों पर
कालिख से अंकित होती
सभ्यता
धर्म गुरु आशाराम और भी
कई _______

क्या______
वाकई शेष रह जायेगा
महत्त्व इस दिवस का

ऐसे में______
 विचारणीय ???
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

कविता-२१८ : "अपनी कहानी..."

काश... 
होती अपनी कोई कहानी
या कहानी जैसी ही
शब्दों की वर्णमाला से
सजते जीवन के कुछ अध्याय
वक्त की उंगलिया थूक लगाकर
पलटती पन्ने
इस कहानी में रोचकता
होती या न होती
पर उपसंहार आते आते
कोई रोता जरूर
जिसको मिला हो दर्द
मुहब्बत में...
और उसके अश्रुओं की कोई भी
बूँद कहानी के नीले अक्षरो
को लाल कर देती
फिर ये कहानी ,सिर्फ कहानी
न होकर
सीख बन जाती
समय के लिए...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

बुधवार, 29 जुलाई 2015

कविता-२१७ : "कृष्ण तुम सखा मेरे..."

कृष्ण तुम सखा हो मेरे
ह्रदय से स्वीकार किया मैंने
तुम्हे सखा स्वीकार करना
मेरी नितांत मज़बूरी भी
जिंदगी के अविरल पड़ाव पर
हर और ...हर क्षण
दुर्योधन दुसाशन और शकुनि
ताक रहे है मुझे
हर तरफ ही निगाह है इनकी
ऐसे में
पितामह भीष्म और
गुरु द्रोण जैसे चरित्र भी हिंसा
को उतारू.....
अब फिर लूटेगी कई
द्रोबतियो की लाज सड़को पर
टपके ममता के आंसू
उनके ही सपूतो के शव के ऊपर
फिर से होगी एक
महाभारत आधुनिक जहाँ
पांसों से नहीं तकनीक से
मारा जायेगा
इस नरसंहार में ____
पीड़ित शोषित और भयभीत
मानवता में
न्याय और नीति की मांग हेतू
कहाँ जाऊ
जब कानून कठघरे और खाकी
खुद ही दुर्योधन दुसाशन
तब मेरी उम्मीदों के प्रभात हेतु
आ जाओ मोहन
और पार्थ की तरह
दिग्दर्शक पथ प्रदर्शक
बन थाम लो मेरे इन
कपकपाते हांथो को तुम
क्योकि अब
भगवान नहीं इंसान की
आवश्यकता है
धरती पर...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

मंगलवार, 28 जुलाई 2015

कविता-२१६ : "अंतिम सच..."


शमशान में...
अंतिम संस्कार के वक्त
किसी पार्थिव देह के चारो और
जमा भीड़....
और उस भीड़ के बीच मैं
 लकडियो के गट्ठे से सजी
शयन चिता
फूलो से लदे गलहार में लिपटी
देह
जिसके नासा छिद्रो में पाला /रुई
लगाकर.....

अंतिम तैयारी अग्नि भेंट हेतु
 रायचंदो की कर्कश आवाज
मुफ़्त सलाह ज्ञान
इस लकड़ी को यहाँ लगाओ
उस लकड़ी को वहां...

कुछ साधारण प्रवत्ति के लोग
कवि जैसे ही
जिनकी निगाहे मोबाइल की स्क्रीन
पर ही...
शायद कोई कविता ही पढ़ रहे
 मैं अलग-थलग सा व्यक्तिव
पूरी भीड़ में
इकहरा लंबा...शरारती .....
निगाहे जमी देह के चेहरे पर
कि शायद लकडियो के दवाब से
खुल जाये आँख
और आस पास मच जाये भगदड
भूत जैसा ही कुछ जानकर
पर लकडियो के दवाब
पश्चात
वैदिक मंत्रो के साथ अग्नि भेंट
और खुलेगी आँख की शंका
 देखते देखते खाक ही हो गई
और मिटटी मिटटी में मिली
और वहां राख हो गई
 हम और सब भीड़ के लोग
चले गए घर
 पर कल किसी भी खुल सकती है आँख
लकडियो के दबाब में
मैं जाऊंगा  पुनः मरघट
जिंदगी की हकीकत जानने
कि...

सच तो सच है जो लकड़ी क्या
किसी भी दवाब में जीवित
नहीं होता
थमने के बाद...
मरने के बाद...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

सोमवार, 27 जुलाई 2015

कविता-२१५ : "अधेढ़ पुरुष..."

 सच____
ये कुछ ...अधेड़ पुरुष
कालिख पुते बालो पर
यौवन की साख ज़माने वाले
सुबह की भोर से
रात्रि के अंतिम आगोश तक
नीचे से फोल्ड की हुई मोहरी
और सरकते हुए जीन्स से
तबेले से पेट को दिखाते हुये
वाले ये अधेड़
जिंदगी के सरकते हुए पटल
पर _____

चेहरे की झुर्रियों और लटकती
चर्बी को नजर अंदाज कर
नकली दांतो से
नाख़ून चबाते हुए.....

गोल चश्मे में निहारते
उस महिला को
जिसने , आई एम अलोन का
स्टेटस , डाला फेस बुक पर
तांक रहे उसकी प्रोफाइल
और इंतजार में है
कि कब रिकवेस्ट स्वीकार हो
और
घुस जाये इनबॉक्स में
सुन्दर आँखे सुन्दर चेहरे और
अति सुन्दर लेखन
की बात कहके
कर दे ताबड़तोड़ लाइक और
कमेंट....

पाकेट में रखे एनरोयड फ़ोन
की पिंग पोंग
और मोबाइल की स्क्रीन पर
दिन भर चलती उंगलिया
जैसे रेगिस्तान की सुर्ख भूमि पर
लुढक रही हो कोई बूंद ही..

  वाइव्रेट से होते अधकपे हांथो में
छोटा सा मोबाइल डोरी वाला
जिसके सन्देश और
गेलरी को ..
बच्चों से छिपाकर तो कही
अर्धांग्नी को ये कहके
कि फला तस्वीर या प्रोफाइल
कि मेरी मित्र की है ...
जो पूछती है तुम्हारे बारे में ही
कराऊँगा बात तुमसे...

पर अर्धाग्नि .....
इसी मित्रता सम्बन्ध की चाहत में
तड़पती रही आधी उम्र ही
पति से ही
और पति के अलावा अन्य पुरषो
से मित्रता
देता रहा ठोकर उसकी पत्निव्रता को.....

अधेड़ उम्र  में अधेड़ पुरषत्त्व
नहीं दे पाता पूर्णता
उनकी संवेदनशीलता को
और अधेड़ता
अधेड़ ही रह जाती
जिंदगी के कई मायनो में
सच......

कुछ ऐसे ही है ये...
अधेड़ पुरुष...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

रविवार, 26 जुलाई 2015

कविता-२१४ : "गूंज उठी शहनाई..."

शहनाई की गूंज मीठी
नाद उठे जब रातो में
एक चिड़िया आंह भरे तब
पिया मिलन की बातो  में
बाबुल के घर का सपना
आँख उठे भर आता है
माँ पिता से विरह ये कैसी
ये उसको तड़पाता है
आँगन पीपल खेल खिलोने
चिड़िया संग मुस्काते है
सजे द्वार के आम पात भी
विदा गीत अब गाते है
सखी सहेली राह जोटती
लाल सिंदूर के भर आने का
माँ के नयनो में भरे अश्रु
बेटी के पराये हो जाने का
पीली हल्दी सजे है कंगन
आरत की थाली चमके
काजर बिंदी गजरा चूड़ी
रूप सलोना ये दमके
सप्त फेर की रीत सुहानी
सोलह श्रेष्ट श्रृंगार चले
गाँठ लगी रिश्तों की डोरी
कदम मिला के रीत बढ़े
अश्रु से खुशिया भीगी
अब आँगन सूना जो लगता
चिड़िया उड़ गई अपने घर
संस्कार सुहाना ये लगता
माँ पिता की उम्मीदे देखो
सज धज के पूरी हुई
बेटी के हाँथ की मेहँदी
पर कैसी ये दूरी हुई
मधुर रीत के पालन में
गूंज शहनाई की होती है
बेटी होती ह्रदय का टुकड़ा
पर वो तो पराई होती है...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

शनिवार, 25 जुलाई 2015

कविता-२१३ : "आशियाना..."

जिसे लिख रहा हूँ
उसे
आशियाना नाम तुमने ही दिया
या इस ज़माने ने
जो भी है
सिर्फ कहने को ही है
आशियाना हमारा
कहते हुए अच्छा भी लगता है
पर इस आशियाने के
प्रत्येक हिस्से पर
मैं फकत किरायेदार सा ही
ताउम्र रजिस्ट्री तो जैसे
किसी और की
जिसके बारे में नहीं पता मुझे
और करूँगा भी क्या
पता करके
जब तुम्हारी रजिस्ट्री मेरे साथ है
पर तुम्हारे अंदर किसी
और की...

हे ! पाठक
कविता समझ के न बहाना
अश्रु अपने
मैं बहा चूका हूँ बहुत
तुम सबकी लोक लाज में
सिर्फ जान लो
दर्द ही कविता बनते है
फिर चाहे आशियाना हो
या और कुछ...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

कविता-२१२ : "दर्पण..."

दर्पण को देखकर
सत्य को
पहचानने का हुनर
जिनमे है__
वो इस सत्य की वास्तविकता से
जान लेते है
पहचान लेते है..
चेहरे की झुर्रियां
बालो की सफेदी
समय का घटता हुआ क्रम
आभासी दर्पण
में उकेर देता है
पर काश
व्यकि के अक्स के साथ
उभर के आता
इंसान के अंदर छिपा
एक और इंसान
जो है
इंसान के जैसा ही..
पर ऊपर के इंसान के रूप
को दाग लगा देता
कई बार...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

गुरुवार, 23 जुलाई 2015

कविता-२११ : "घर में हैं कार... लेकिन नहीं संस्कार..."

सब कुछ है...

ऊँचे महल है जहाज है
दवाई और ईलाज है
मशीन है ईंधन है
तिजोरियों में धन है
आधुनिक युग में......

कंप्यूटर है तकनीक है
चोरी भी है थाना भी नजदीक है
मंदिर है मदिरालय है
स्कूल के सांमने अनाथालय है
आधुनिक युग में.....

महंगे महंगे अस्पताल है
संचार साधनो का जंजाल है
दूध से महंगी शराब है
गरीबो की हालत खराब है
आधुनिक युग में....

सजा है बड़ा कानून है
चौराहो पे होता खून है
दिन दहाड़े लुटती अबला लाज है
किसानो के पेट में न अनाज है
आधुनिक युग में....

अनपढ़ यहां मंत्री है
पढ़ा लिखा संत्री है
फैशन का दौर है
अनैतिकता हर छोर है
आधुनिक युग में....

बड़े बड़े वाहन है
यातायात के साधन है
मोटर और महंगी कार है

पर नहीं और नहीं ....
संस्कार है...
आधुनिक युग में...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________