कुछ वर्ष पूर्व...
जीवन के सोलह बसंत में
लाल गुलाबी गुलाब अच्छे
लगते थे
उनकी पंखुरी रख लेता था
किताब के बीच
फिर किताब में दिखने लगता
था
प्रेयसी का चेहरा
तब मैं प्रेम में
था........
उसकी एक मुस्कान ही
मुझमे लगा देती थी पंख
और
उड़ने लगता था,
हवाओ के संग
पहुँच जाता था नील गगन में
जहाँ से धरती लगती थी छोटी
और दिखती थी तुम ही
तुम लगती थी माँ बाप के
सपनो से / उम्मीद से...
बड़ी...
तब मैं प्रेम में
था.........
मेरी उठती साँसों के
प्रत्येक
कम्पन पर
उभर के आता था तेरा नाम
तेरी खुशबू........
तब मैं प्रेम में ही
था......
आज करीब बीस वर्ष बाद
बूढ़े माँ बाप की उम्मीदों का भार
उनके चेहरे की झुर्रियों
पर
अपेक्षाओ के निशान
बहिन के पीले हाँथ की
चिंता
भाई के पढाई का खर्च
परिवार की जवाबदारी
और भी कुछ....
बहुत कुछ............
जिसको जी रहा हूँ
पल पल
निभाने रिश्ते
अब......
मैं प्रेम में नहीं हूँ
बिलकुल
सच....
बल्कि प्रेम मुझमे ही
है...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
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