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रविवार, 26 जुलाई 2015

कविता-२१४ : "गूंज उठी शहनाई..."

शहनाई की गूंज मीठी
नाद उठे जब रातो में
एक चिड़िया आंह भरे तब
पिया मिलन की बातो  में
बाबुल के घर का सपना
आँख उठे भर आता है
माँ पिता से विरह ये कैसी
ये उसको तड़पाता है
आँगन पीपल खेल खिलोने
चिड़िया संग मुस्काते है
सजे द्वार के आम पात भी
विदा गीत अब गाते है
सखी सहेली राह जोटती
लाल सिंदूर के भर आने का
माँ के नयनो में भरे अश्रु
बेटी के पराये हो जाने का
पीली हल्दी सजे है कंगन
आरत की थाली चमके
काजर बिंदी गजरा चूड़ी
रूप सलोना ये दमके
सप्त फेर की रीत सुहानी
सोलह श्रेष्ट श्रृंगार चले
गाँठ लगी रिश्तों की डोरी
कदम मिला के रीत बढ़े
अश्रु से खुशिया भीगी
अब आँगन सूना जो लगता
चिड़िया उड़ गई अपने घर
संस्कार सुहाना ये लगता
माँ पिता की उम्मीदे देखो
सज धज के पूरी हुई
बेटी के हाँथ की मेहँदी
पर कैसी ये दूरी हुई
मधुर रीत के पालन में
गूंज शहनाई की होती है
बेटी होती ह्रदय का टुकड़ा
पर वो तो पराई होती है...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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