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गुरुवार, 9 जुलाई 2015

कविता-१९६ : "विरह..."

ये कैसा  विरह है तुमसे कि

विरह पश्चात

और नजदीक हूँ तुम्हारे
दैहिक नहीं किन्तु आत्मिक
सच...


पथराई आँखों की सुकड़ी

डिम्बियां अब नम है

तरलता भी आवश्यक है जीने हेतू
मान ही लिया मैंने !

दुनिया के छोर में तुम तो हो
पर, मेरी और नहीं अब
ये तुम ही जान लो
और देख लो
मैं तो जी लूंगा लिखकर
कविताये

तुम पर ही.....



पर, सोचता हो तुम लौट न आओ
विरह की तपिश में
मिलन की बरसात लिए


सुना है किसी से
मेरी कविताओ खींच लेती है

प्रेम को...!!!
-------------------------------------------------------------_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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