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शनिवार, 25 जुलाई 2015

कविता-२१३ : "आशियाना..."

जिसे लिख रहा हूँ
उसे
आशियाना नाम तुमने ही दिया
या इस ज़माने ने
जो भी है
सिर्फ कहने को ही है
आशियाना हमारा
कहते हुए अच्छा भी लगता है
पर इस आशियाने के
प्रत्येक हिस्से पर
मैं फकत किरायेदार सा ही
ताउम्र रजिस्ट्री तो जैसे
किसी और की
जिसके बारे में नहीं पता मुझे
और करूँगा भी क्या
पता करके
जब तुम्हारी रजिस्ट्री मेरे साथ है
पर तुम्हारे अंदर किसी
और की...

हे ! पाठक
कविता समझ के न बहाना
अश्रु अपने
मैं बहा चूका हूँ बहुत
तुम सबकी लोक लाज में
सिर्फ जान लो
दर्द ही कविता बनते है
फिर चाहे आशियाना हो
या और कुछ...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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