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बुधवार, 29 जुलाई 2015

कविता-२१७ : "कृष्ण तुम सखा मेरे..."

कृष्ण तुम सखा हो मेरे
ह्रदय से स्वीकार किया मैंने
तुम्हे सखा स्वीकार करना
मेरी नितांत मज़बूरी भी
जिंदगी के अविरल पड़ाव पर
हर और ...हर क्षण
दुर्योधन दुसाशन और शकुनि
ताक रहे है मुझे
हर तरफ ही निगाह है इनकी
ऐसे में
पितामह भीष्म और
गुरु द्रोण जैसे चरित्र भी हिंसा
को उतारू.....
अब फिर लूटेगी कई
द्रोबतियो की लाज सड़को पर
टपके ममता के आंसू
उनके ही सपूतो के शव के ऊपर
फिर से होगी एक
महाभारत आधुनिक जहाँ
पांसों से नहीं तकनीक से
मारा जायेगा
इस नरसंहार में ____
पीड़ित शोषित और भयभीत
मानवता में
न्याय और नीति की मांग हेतू
कहाँ जाऊ
जब कानून कठघरे और खाकी
खुद ही दुर्योधन दुसाशन
तब मेरी उम्मीदों के प्रभात हेतु
आ जाओ मोहन
और पार्थ की तरह
दिग्दर्शक पथ प्रदर्शक
बन थाम लो मेरे इन
कपकपाते हांथो को तुम
क्योकि अब
भगवान नहीं इंसान की
आवश्यकता है
धरती पर...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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