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मंगलवार, 14 जुलाई 2015

कविता-२०२ : "माँ... प्यारी माँ..."

सोचा...
 माँ तू सागर जैसी है
पर सागर में उफान देखे है मैंने
और माँ तो उफानो से तुफानो
से रहित होती है.....

फिर सोचा
माँ ,धरती जैसी है
पर हाल ही फटते देखा है मैंने
चीर धरती का
जो लील गया हजारो लोगो को..

फिर सोचा ...
माँ ,आकाश जैसी है
पर अन्तः आकाश की भी सीमा है
पर  माँ तो असीम

फिर तुलना कि मैंने कि
माँ फूल जैसी है
पर फूल भी मुरझा जाते एक दिन
और छोड़ देते महक
पर माँ की महक तो सदा ही...

फिर...

माँ कैसी है ?

तभी माँ की और देखा
माँ मुस्कराई
तब जाना

माँ बिलकुल....
माँ के ही जैसी है...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________


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