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रविवार, 12 जुलाई 2015

कविता-१९९ : "अंध-विश्वास..."

मेरे हो तुम और रहोगे भी सदा..
 जानता हूँ और मानता भी हूँ
मेरे अश्रुओं के जमी पर गिरने
के पहले
जो हथेली आई
वो तेरी ही तो थी...

लंबी यात्रा के बाद पाँवो में
हुए छालो में
मरहम वाले हाँथ भी तेरे
मेरे सुख में तुम्हारी
मुस्कान
मेरे दुःख में तेरे
आँसू...

सच  तुम मेरे हो सिर्फ
मेरे
और ये विश्वास है मेरा
पर ....
दुनिया के रंग में तुम्हारी
मुहब्बत न हो जाये
बेरंग
और मैं न रहूं तुम्हारा कभी
ये है मेरा
 अन्धविश्वास...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________


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