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शनिवार, 11 जुलाई 2015

कविता - १९८ : "मेरे प्रेम..."

झूठ कहने की हद है

और उस हद में कब तक रहू
कब तक कहूँ
खुद से
खुद के आस पास के लोगो से
एक साफ़ झूठ


गवाही नहीं देता अब तो

मेरा खुद का बजूद भी
सच
पीड़ा होती तो दवाई ले लेता
पर, तुम न ही पीड़ा हो
न ही दर्द
फिर मेरे अनकहे स्वप्नों को
साकार न करके
क्यों गए वापिस

सूरज आता है किरणों के साथ

जाकर पुनः आता है
तुमने आने जाने की
क्रिया को पूर्णता दे दी

काश.......

ये विराम आने पर होता
काश.....
या आते ही नहीं तो
काल कोठरी सा जीवन
काला ही होता
पर,
तुम्हारे झूठे दूधिया स्वरूप को
इस ज़माने को कैसे
दिखाऊ
और क्या बताऊ
या हार जाऊ
बोलो
बोलो
बोलो
मेरे प्रेम...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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