थामे थे हाँथ तेजी से जकड कर
हम दोनों ने
उंगलियों के बीच के अंतर में भी
अंतर न था
छोड़ते भी कैसे तुम
चांदी के सिक्के से ही भरी थी
तुम्हारी मांग
वो लाल रेखा ही तो बंधन थी
तुम्हारा.....
एक रोज तो तुमने उपवास भी रखा थी
किसी पर्व पर कि
जन्मो जन्मो प्रीत रहे अपनी
पर एक हवा चली हां हवा ही
तुम गये थोडा सा आंगे
मै खड़ा रहा तुम्हारे ही विश्वास
के साथ...
मै आज भी खड़ा हूँ वही
पर तुम जो गये तो न आओगे
जानता हूँ....
वाह रे किस्मत हम तो
इंतजार ही करते रह गये
तुम्हारा ही...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल
जैन’_________
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