दिन भर ,
तसला में भर गारे ईटो के संग
खोजती हूँ जिन्दगी को...
फटी विमाई को लिये नंगे पैर
तपती जमीं पर
तलासती हूँ भूखे पेट की जरुरत को
क्योकि उसी से भरेगा दूध
सीने में, जो देगी मेरे मासूम की
किलकारी को आवाज...
अध फटी चोली पर लोगो की
फब्तियां...
फब्तियां...
सुनकर भर भी अनसुनी हो जाती है
रात में नशे से चूर आदमी की
आवाज में...
चार बच्चो की भूख और
आदमी की मार
दोनों ही जानती हूँ...
पर चलती रहती हूँ
हर घडी हर पल हर पहर
बेखबर...
क्योकि स्त्री हूँ मै
स्त्री...!!!
------------------------------------------------------------
______आपका अपना... 'अखिल जैन'______
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें