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सोमवार, 5 जनवरी 2015

कविता-०५ : 'बना दिया मुझे कवि जैसा ही'

कौन हो तुम क्या हो तुम ??
शब्दों में उकेरी हुई
संग अहसासों के कागजो पर
बोध कराती सी...

या मेरे अंतस में विराजी
प्रेम के अंतिम पटल से
ह्रदय की प्रत्येक आहट तक
मेरे जीवन सौन्दर्य को महकाने
वाली नायिका....

कविता में तुम हो या
तुम में कविता..
पर !

पहुंचाती हो तुम उस ऊँचे शिखर पर
जहाँ से धरती का स्वर
सुनाई ही नहीं देता...

तुमने कई बार सागर की अथाह
गहराई में भी भेजा है
जहाँ से कई सीप मोती लाया हूँ
तुम्हारे लिये...

तुमने पंछियों के मधुर गान से
फूलो की खुशबू संग बहाया है...

तुमने अखिल आकाश से पाताल
तक की सैर कराई है...

तुमने चाँद सितारों को भी बौना
कर दिया अपने आखरो में....

तुमने मेरे दीर्घ स्वप्न को हकीकत
में बदला...

पर हकीकत स्वप्न सी ही रही सदा.
क्या क्या नहीं लिखवाया तुमने
शब्दों के खेल खेल में....
आदि से अंत तक....
अंत से कोई सीमा भी नहीं....
कविता जो हो तुम
और प्रेम संसार भी तो हो...

जो घुमा रही हो आठो दिक दिशाओ में....
कोने कोने में.....अहसासों के वेग में
प्रेम के संवेग में...

कहा था तुमने एक बार जो
जहाँ न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि
कविता कवि बना दिया तुमने
सच.....कवि जैसा ही....!!!
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...........आपका अपना.... 'अखिल जैन'

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