ओस की बूँद जैसे हो तुम
पढ़ा था कहीं
सो, लिख दिया...
सोचनीय
किन्तु काल्पनिक
संज्ञा , अब भला हो सकता
है
कोई
बूँद ओस के जैसा..
क्योकि उस रोज ही देखा
था मैंने
बल्कि शीत मौसम में
देखता हूँ कई बार
कि प्रातः आती है हरी हरी
पत्तियो पर ओस की बूंदे
और रजनी के आगमन के साथ
ही ठहरती कहाँ ?
पर, तुम तो साथ हो मेरे
जन्मों से ही
भोर की प्रथम किरण से
निशा के आगोश तक
मेरी देह तत्त्व में विलीन
साँसों को घुल
करती कल्लोल सदैव ही....
आई थी कब नहीं पता
पर जानता हूँ / तय है
वियुक्त न होगी कभी भी
फिर कैसे हुई तुम
ओस की बूँद की तरह
नहीं हुई न.....!!!
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_______आपका अपना___ ‘अखिल जैन’
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