'कलेंडर'...
बधाई के पात्र
हो तुम
बारह पेजों को
लटकाये
वर्ष भर पूरे
365 दिवस टंगे होते हो
एक ही खूँटी से
, एक ही दीवार पर..
जहाँ जिस दीवार
के अन्दर रहने वाले लोग
एक वर्ष तो
क्या एक ही पल में
बदल जाते है न
जाने
कितनी ही
बार...
स्थानिक तो ठीक, वैचारिक बदलाव
होता है कई बार
कभी कभी तो
रिश्तो के आसन
पर भी
बदलाव कर देते
है लोग..
तुम्हें दीवार
की खूँटी
जो चुभती होगी
तुम्हारी पतली
सी
गर्दन में
वर्ष भर...
कितनी बार पलटे
गये
थूक के साथ
सुख दुःख शादी
विवाह
सभी समारोह
तुमने ही किये
स्थापित..
पर तुम तो
टंगे ही रहे
खूँटी से
और जब हो गये
कड कडाती ठण्ड
के मास
दिसम्बर में
बूढ़े...
तो नव साल के
आगाज में
हाँथ तापने को
जला दिया
तुम्हारे
सीने में छिपे
उस कोष को
जिसने हर पल
दिया सबको
कुछ न कुछ....
खूंटी वही
...दीवार वही
पर तुम
नहीं....
वहां होकर भी
.....!!!
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....................आपका अपना.... 'अखिल जैन'
'कैलेंडर' को समर्पित खुबसूरत अभिव्यक्ति.... :) !!!
जवाब देंहटाएंतुम नहीं वहाँ होकर भी... वाकई बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति....
हटाएंखूंटी वही ...दीवार वही
हटाएंपर तुम नहीं....
वहां होकर भी .....
तुम नहीं...
वाकई तुम होकर भी नहीं...
सुन्दर अभिव्यक्ति....