हैं तो आजाद...
हम और तुम भी..
मानसिक , शारीरिक
और
अधिकारिक रूप से...
सोचने की ...करने की....
घूमने की फिरने की
कहने की सुनने की
नियमो के बुनने को...
लिखने की ..पढने की
किसी से भी लड़ने की...
संस्कारो को निभाने को
मिटने की मिटाने की...
सत्ता के जूनून की
सडको के खून की
बच्चे पर अत्याचार की
नारी के बलात्कार की.....
आजादी तो ही है...
बोलो है न आजादी....
बोलो क्यों मौन हो अब
आजाद हो तुम भी
कहने के लिये...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________