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शुक्रवार, 29 मई 2015

कविता-१५७ : "जिंदा रहूँ में..."






तुम्हारी एक ना ने

सब ही तो खत्म कर दिया
अबशेष क्या अब 
शेष
कि जिन्दा रहूँ मैं....

भ्रम था लोगो कि अच्छा
लिखता हूँ मैं
कैसे कहूँ कि लिखवाती थी
तुम मुझसे सदा....

खूब हँसता था हंसाता था
अब वो मुस्कान कहाँ
शेष
कि जिन्दा रहूँ मैं...

कई राते जागकर काटी
दिन तुम्हारे इंतजार में
तुम नहीं तो फिर
ये दिन ये रात कहाँ
शेष
कि जिन्दा रहूँ मैं...

आज रवि भी नहीं निकला
निशा भी न आगोश भरती
पंछियो का नहीं अब
कलरव शेष 
कि जिन्दा रहूँ मै...

माँ बाप के नेत्र बूढ़े
ठहरे टूटी उम्मीद पर
यादें तुम्हारी सदा मुझको
जीने देती कहाँ...

तुम नहीं जो तो
मेरा खुद में क्या शेष 
कि जिन्दा रहूँ मैं...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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