चाँद चढ़ गया आसमान की
खूँटी पर
सूना कर गया फिर से
आँगन मेरा...
आँगन में लगे नीम के पेड़
क़ी एक टहनी से
लटका था जो हमेशा...
इतनी ऊँची तो सीढ़ी भी नहीं
कि उतार लाऊ
क्योकि ऐसे तो न आएगा
बुलाने पर
जानता हूँ....
इठलाने मनवाने और रूठने
का हुनर बख़ूब आता है
चाँद को...
मेरी गर्दन भी पीड़ा से भर उठी
निहारते निहारते
अब जाओ चाँद अब तो
जमीन पर
तुम्हारी जगह आकाश में
लटका देता हूँ
चेहरा उसका
ये सुहानी रात हो जायेगी
मस्तानी भी
सच्ची ...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
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