रविवार, 26 अप्रैल 2015
कविता-१२४ : "हे औरत..."
बिटिया...
तुम लड़की बन गई
लड़की तुम...
युवती बन गई...
युवती तुम महिला...
महिला तुम वृद्धा बन गई
पर हे औरत...
तू क्यों बनी रही अबला ही
जिन्दगी भर...
क्यों न पा सकी अधिकार
पुरषो के जैसे
कभी...!!!
-----------------------------------------------------------
_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
नई पोस्ट
पुरानी पोस्ट
मुख्यपृष्ठ
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें