तुम्हारी जो लम्बी सी गर्दन है ना
सुराही जैसी...
उस पर ठहरी थी बारिश की एक बूँद
जो तुम्हारे लहलहाते हुए गेसुओ से
उतर कर आ गिरी थी..
और नीचे आती और गिरती जमी पर
पहले इससे ही...
अधरों से मिला लिया जिव्हा रस में
मैंने...
नहीं गिर पाई वो स्पर्शित बूँद
तुन्हारे बदन से जमी पर..
क्योकि जमी से उठकर ही तो
प्यार किया है
हमने और तुमने..
है ना...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
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