मंगलवार, 30 जून 2015
सोमवार, 29 जून 2015
कविता-१८६ : "दिल्लगी..."
आओ दिल्लगी कर लो
तुम भी...
इजहार करना
प्यार करना
दिखाना ख़ुशी देने के
झूठे स्वप्न
फिर किसी दिन होकर
मदमस्त...
बिस्तर पर समेत लेना
प्यार को अपने
फिर एक दिन
वही जिसके लिए दिल्लगी
की गई...
निचोड़ कर
छोड़ देना
मार देना उसे
या खुद ही मर जायेगी वो
दिल्लगी में तुम्हारी
जिन्दा होकर भी...
आओ कर लो दिल्लगी
तुम भी...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
रविवार, 28 जून 2015
कविता-१८५ : "प्यार दोबारा..."
कैसा ?
क्योकि दे सकता परिभाषा
तो प्यार ही नहीं लिखता
वर्षो से लिखना चाहता हूँ प्यार
पर,
लिख पाता कहाँ
और तेरा नाम लिखकर ही
प्यार को पा लेता हूँ
पर,
ये कलम सिर्फ तेरे नाम से
संतुष्ट कहाँ
और भी कुछ लिखना चाहती है
एक और नाम
उफ्फ्फ्फ़
कहीं मुझे फिर से
किसी से
हो तो नही गया
प्यार...
कोई अब ये न कहना
बताता हूँ ये
घरवाली को...
हुआ तो हुआ...
प्यार ही तो है
पल भर के लिए ही सही...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
शनिवार, 27 जून 2015
कविता-१८४ : "आदमी और जिंदगी..."
न जाने क्यों ??
कभी खुश नहीं होता है आदमी
जिन्दगी के पड़ाव पर...
समय की नाव पर
उलझा रहता है
काम में धाम में...
मित्र में शत्रु में
अपने में पराये में
लाभ में हानि में....
अनभिज्ञ होता है शायद ?
डरता है सत्य से...
प्रकृति के कृत्य से...
जानकर भी नहीं सोचता
जीवन का सार....
समय की मार....
मौत से बेखबर चलता रहता है..
वह निडर.....
कब तक...
आखिर कब तक...???
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
शुक्रवार, 26 जून 2015
कविता-१८३ : "कविता या तुम..."
एक एक अक्षरों को...
उठाकर.. सजाकर..
एक व्यवस्थित क्रम में लगाकर...
लिखने की कोशिश करता हूँ
मै...
कविता...
होती है की नहीं
क्या पता मुझे ??
पर !
हर अक्षर में
दिखाई जरुर देती हो
मुस्कराती हुई...
तुम...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
गुरुवार, 25 जून 2015
बुधवार, 24 जून 2015
कविता - १८१ : "संतान की अभिलाषा..."
भीतर के अंधेरों में
गोल गोल घेरो में...
तुम्हारा, सांस लेता नन्हा शरीर
आसपास....
मानव शरीर अंग, कोशिकाये..
उत्तक, रक्त वाहिकाये..
ही पडौसी रहे होंगे तुम्हारे...
मित्रता भी की होगी
तुमने इन सबसे...
नौ मास का लम्बा समय
एक काल कोठरी में
भीतर बिताया है तुमने..
पता नहीं ??
बहार की बारिश की बूंदों की
आवाज..
सुनाई देती थी तुम्हे या नहीं..
पर !
माँ की साँसों से, उसकी अथाह
ममता से...प्यार से...
तुम्हे मिलता जरुर होगा..
एक अहसास बेहद सुखद..
जो तुम्हारी पलकों को
कराता होगा इंतजार..
बाहर धरा पर आने का..
और देखने का..
अपनी जननी माँ का
मुस्कराता हुआ चेहरा...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
मंगलवार, 23 जून 2015
कविता-१८० : "मेरे तुम्हारे... सारे सच..."
वियुक्त हो मुझसे मनन किया होगा तुमने
किंचित क्षुब्ध होउंगा तुम बिन मैं
या पीड़ा होगी मुझे विरह की
अट्टहास....यह मात्र भ्रम है तुम्हारा
और क्षोभ है मुझे
कि यही भ्रम तुम्हे जीवन की ऊर्जा प्रदान करता है
तब से अब तक
जब भ्रम था मुझे
अभिन्न होने का तुमसे
भ्रम था मुझे जब
तुम कभी मुझे नहीं करोगी
परिचित अश्रुओं से
कुछ दिन साथ चले थे जीवन-पथ पर
तब भ्रम था
आजन्म संयुक्ति का
देवरूप के सम्मुख
सौगंध ली थी हमने
भ्रम था
आमरण उस सौगंध पर टिके रहने की
भ्रम था
उनके निभ जाने का
सूची लम्बी है
भ्रमों की
और गहरी है तन्द्रा
मिथ्या प्रतीति की
तुम पढना
मेरा यह आलेख
तब छंटेगा
भ्रम का अभिमाद
यथार्थ की भोर होते ही
तुम्हारी उनींदी आँखें
जब गुजरेंगी
मेरे मुस्कुराते चेहरे से
उन्हें भान होगा
भ्रम के पीछे छुपे
मेरे सच्चे चेहरे से
जो तुमसे बता देंगी
सारे सच
मेरे-तुम्हारे...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
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