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शनिवार, 13 जून 2015

कविता-१७२ : "आंसू की बूंद..."

आँसू की बूँद...

कहाँ ढूँढ रहे हो वहां
जहाँ बूँद तो क्या कतरा भी 
नहीं मिलेगा...
सबके पास नहीं होती ये बूंदे
होकर भी...

दर्द अहसास संवेदना ही बनाती है
इन्हें मिलकर
इसलिये होती है ये खारी 
शायद...

चलो उस बस्ती में बुढिया के घर
देखो उसकी बेटी और बेटो को
फिर देखना बुढिया की चेहरे की
लकीरों को...

उसके जवान बेटी के अधफटे कपड़ो को....
उसके बच्चे के भूखे पेट को....
आँसू की बूंदे तो क्या
बाढ़ देखने को मिलेगी इस खारे
पानी की...

तब टूटेगा भ्रम तुम्हारा कि
ये बूंदे सिर्फ आँख में रहती है
इसके बाद भी लगे तो आ जाना
इन बूंदों की सुनामी दिखाऊंगा
यही कहीं...

खोल लेना मेरी कलम का
ढक्कन पीछे से 
लेकिन संभल कर.... 
इससे निकलने वाली 
आसुंओं की बूंदों में 
सच्चा इंसान डूब भी सकता है...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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