हो क्या ?
तुम वहां पर
उन काली आकृतियो की ओट में
जिसे कुरेदा था
कागज पर, लेखनी से मैंने...
हो क्या तुम, वहां पर...
नील गगन में उन बादलो के पीछे
या ऊपर
क्योकि दिखे तो नहीं
पर उनमे एक झलक दिखी थी
तुम्हारी.....
हो क्या तुम, वहां पर...
समुद्र के नीचे
अनंत गहराई में छिपे
सीप के अंदर ही
मोतियों के संग...
हो क्या तुम , वहां पर
जहाँ से ये हवा छूकर तुम्हे
महकती है सदा ही....
और खुशबू देती है
मुझे....
हो क्या तुम , वहां पर ही
जहाँ से सांस लेता हूँ
मैं...
बताओ न अब
कहाँ हो तुम...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
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