नजर को मेरी
तुम्हारी नजरो के साथ ही
दूर किनारे उस पनघट के
उड़ा ले गई थी जहाँ
लगा है एक उम्मीद का बड़ा
सा वृक्ष...
लोग प्रेम भी कहते है इसे
इस छायादार पेड़ के
नीचे ही लिख रहा हूँ आराम से
तुम पर ,तुम्हारी नजरो के सामने
क्योकि...
नजरे तुम्हारी कातिल जो है
है न...!!!
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________
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