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शुक्रवार, 5 जून 2015

कविता-१६४ : "कैसी ये उलझन हैं ???"


जिन्दगी की रेत पर
वक्त की उँगलियों के निशान...

कुछ कम गहरे भी
और कुछ कम ठहरे भी...

ये निशान मिटाना भी नहीं चाहता
और दबाना भी...
कैसी ये उलझन है....??

ओह !
ये हवाये क्यों चली अचानक
और ये लहरे कैसी ???
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_________आपका अपना ‘अखिल जैन’_________

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